अरुणि — आज्ञाकारी शिष्य
बहुत समय पहले की बात है जब ना मोबाइल था, ना टीवी, और लोग गुरुकुलों में पढ़ते थे — पेड़ों के नीचे, मिट्टी पर बैठकर।
एक बड़ा ज्ञानी गुरु था — गुरु द्रोण। वही द्रोणाचार्य, जो बाद में पांडवों और कौरवों को धनुष-बाण सिखाते थे। उनके गुरुकुल में कई बच्चे पढ़ते थे, लेकिन उनमें से एक लड़का था — अरुणि।
बड़ा ही शुद्ध मन का, सीधे दिल वाला बच्चा।
एक दिन तेज़ बारिश हो रही थी। इतनी ज़ोर की कि खेतों की मेड़ टूटने लगी — वो मिट्टी की दीवार जो खेतों को पानी से बचाती है।
गुरुजी बोले,
“अरुणि, बेटा ज़रा जाकर देखो, खेत की मेड़ तो नहीं टूटी?”
अरुणि बोला,
“अभी जाता हूँ, गुरुदेव!”
और बिना एक पल रुके, भीगते हुए निकल गया।
वहाँ जाकर देखा — अरे बाप रे! पानी तेजी से बह रहा था, और मेड़ टूट चुकी थी।
अरुणि ने क्या किया? मिट्टी डाली, पत्थर जमाए, लकड़ियाँ रखीं — लेकिन पानी सब कुछ बहा ले गया।
फिर… उसने सोचा,
“गुरुजी ने कहा है मेड़ बंद करो। अगर कुछ काम नहीं आया — तो मेरा शरीर ही सही!”
और वो खुद जाकर उस टूटे हिस्से पर लेट गया — जैसे एक इंसानी पुल बन गया हो। बरसात की ठंडी हवा, गीले कपड़े, कीचड़, सब सहा… लेकिन हिला तक नहीं।
गुरुजी को लगा,
“अरे, अरुणि तो अब तक वापस नहीं आया!”
तो शिष्यों को लेकर खुद चल दिए। खेत के पास पहुँचे, और क्या देखा?
वहाँ, मिट्टी में लथपथ, काँपते हुए, एक बच्चा पड़ा है — लेकिन मेड़ अब भी टिकी हुई थी।
गुरुजी दौड़े और बोले,
“अरुणि! उठो बेटा! ये क्या कर रहे हो?”
अरुणि ने आँखें खोलीं, मुस्कुराया, और बोला,
“गुरुदेव… आपने कहा था मेड़ टूटने न पाए। तो मैंने उसे टूटने नहीं दिया…”
गुरु द्रोण की आँखों में आँसू आ गए।
उन्होंने उसे उठाया, सीने से लगाया और बोले —
“आज से तू केवल मेरा शिष्य नहीं, मेरी संतान है। तेरा नाम अब हमेशा लिया जाएगा — ‘अरुणि — आज्ञाकारी शिष्य’ के रूप में।”